दीन-ए-इलाही की स्थापना
अकबर द्वारा दीन-ए-इलाही की स्थापना
दीन-ए-इलाही नाम से अकबर ने 1582 में एक नया धर्म बनाया थे देखा जाए तो यह एक धर्म नहीं था पर सारे धर्मों की सारामर्म तथा तत्व को समेट कर एक नूतन धर्म तत्व को प्रस्तुत किया गया था जिसमें सभी धर्मो के मूल तत्वों को सम्मिलत हुआ था इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे इनके अलावा पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मिलित किया इसे आज तक एक धर्म की आख्या मिला नहीं परंतु यह सारे धर्मों का सरा तत्व के रूप है। हालांकि इस धर्म के प्रचार के लिए सम्राट अकबर ने कुछ अधिक प्रयास नहीं किए केवल अपने विश्वस्त लोगो को ही इसमे सम्मिलित किया। कहा जाता हैं
सम्राट अकबर के अलावा केवल सिर्फ बीरबल ही मृत्यु तक इस के दीन-ए-इलाही की अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल 19 लोगो ने इस धर्म को अपनाया। कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमे उन्हने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो सम्राट अकबर राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होता था।
सम्राट अकबर तत्कालीन सिक्कों के पीछे ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था। अकबर का शाब्दिक अर्थ है "महान" और ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ शब्द के दो अर्थ हो सकते थे "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं"। दीन-ए-इलाही सही मायनो में धर्म न होकर एक आचार संहिता के समान था। इसमे भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हे पाप कहा गया। दया, विचारशीलता, और संयम इसके आधार स्तम्भ थे।
सम्राट अकबर सर्वप्रथम धर्मों का सम्मान करने वाले सम्राटों में से एक थे उन्होंने दीन-ए-इलाही की जरिए सर्वप्रथम धर्मों की शादी के गुण एवं सुविचार को लोगों के सामने लाना चाहते थे जिसके जरिए देश में देश भातृत्व भाव एवं मै की उम्मीद करते थे